25 नवंबर 2009

भारत को भी चाहिए एक SEASAME STREET

कुछ समय पहले SEASAME STREET ने अपने 40 साल पूरे किये| बहुत हंगामा हुआ, google ने अपने होम पेज के icon को SEASAME STREET के characters से सजाया और SEASAME STREET के पुराने विद्यार्थियों ने अपना बचपन याद किया| आप लोग कहेंगे कि यह SEASAME STREET आखिर है क्या जिसका में गुणगान कर रहा हूँ और भारत को भला इसकी आवश्यकता क्यों?
SEASAME STREET आखिर है क्या?
SEASAME STREET एक अमेरिकां organization  है जो शिक्षा के क्षेत्र में बहुत कार्य कर रही है शिक्षा को बच्चों के लिए रोचक और मनोरंजक बना रही है| एक उदाहरण आप नीचे देख सकते हैं जिसमे बच्चों को A, B, C, D सिखाने का प्रयत्न किया गया है:-

उम्मीद है आपको मजा आया होगा| ये पढ़ाने का एक मनोरंजक तरीका है जिसको भुनाया है SEASAME STREET ने| कठपुतलियां, कार्टून, मजेदार आवाजें, अजीब से दिखने वाले प्राणी किसके कौतूहल का बिषय नहीं होते, बच्चों को भी वो अच्छे लगते हैं और इस बच्चों के इसी मनोविज्ञान को समझते हुए SEASAME STREET उनके लिए एक उम्दा किस्म की शैक्षणिक सामग्री तैयार करती है|
भारत में आवश्यकता
भारत में भी इस तरह की शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है यह सिर्फ एक अच्छा तरीका ही नहीं बल्कि भारत की जरूरत भी है| यह बात आप सभी मानते होंगे कि भारत की अधिकतर आबादी आज भी गाँव में रहती है| शिक्षा के जितने भी प्रयत्न हमारी सरकार ने किये हैं वो सभी आबादी के सामने बौने है| कभी कोई प्रभावी तरीका सामने आया भी तो वो भ्रस्ताचार की भेंट चढ़ गया| इसलिए सरकार ने गैर सरकारी संगठनों को मौका दिया आगे आने का और साक्षरता को बढ़ाबा देने का पर वहां भी वाही हश्र हुआ जो आज तक बाकि योजनाओं का होता आया है|
SEASAME STREET कैसे ला सकती है बदलाब 
SEASAME STREET  का तरीका अचूक है यह हर जगह काम करेगा| बच्चों की पढाई के प्रति रूचि को ख़त्म नहीं होने देगा क्योंकि यहाँ पर बच्चों को लगेगा ही नहीं कि उनको पढाया जा रहा है| यह उनके लिए मनोरंजन का जरिया होगा और हमारे लिए उनको पढ़ाने का एक बेहतर तरीका| गाँव में जहाँ पर स्कूल नहीं है या फिर अच्छे अध्यापकों का मिलना मुस्किल होता है वहां पर जरूरत होगी सिर्फ एक जगह की, एक छोटा सा कमरा जहाँ पर एक टी.वी. और एक डीवीडी प्लेएर की जरूरत होगी, एक बड़ा आदमी चाहिए जो इन सभी उपकरणों को संभल सके और बस तैयार हो गया एक स्कूल जहाँ पर बच्चों को पढ़ाने के लिए मानना नहीं पड़ेगा, माता पिता की जेब पर ज्यादा वजन नहीं पड़ेगा और एक और फ़ायदा भी होगा वह है भारत की सदियों से चली आ रही कला जो अब लुप्त होने लगी है बच जाएगी, भारत में कठपुतलियां कोई नयी चीज़ नहीं है बल्कि यह वो कला है जो भारत के साथ सदियों से जुडी है, परन्तु अब MTV के ज़माने में लुप्त होने लगी है| इसको एक नया जीवन मिलेगा भारत की SEASAME STREET से और कई लोगों को रोजगार|
मैं इस समय LEARN BY WATCH नाम की एक संस्था से जुडा हुआ हूँ जिसका उद्देश्य कुछ ऐसा ही है, इस समय उसका प्रयाश इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों को सही शैक्षिणिक सामग्री उपलब्ध करवाना है तथा उस से जो पैसा मिलता है उसके एक भाग को गाँव के बच्चों के लिए सुरक्षित कर के रखा जाता है, सही मौका मिलते ही उस पैसे को प्रयोग में लाया जायेगा और जैसा कि इस लेख में मैंने बताया है वैसे स्कूल का निर्माण करवाया जायेगा| हमारा प्रयाश हर बच्चे को १०-५० रूपये प्रति माह पर एक अच्छी शिक्षा प्रदान करने का है, जिसमे आपका सहयोग भी चाहिए|

इनको भी देखें-

कृपया अपने विचारों को जरूर लिखें-
योगेन्द्र पाल
प्रोजेक्ट इंजिनियर
CDAC-मुंबई

24 नवंबर 2009

शिक्षा जरूरी नहीं ???

मेरा नाम योगेन्द्र पाल है, मैं आगरा का रहने वाला हूँ| मेरा गाँव "खुरतनिया" मैनपुरी-किसनी रोड पर पड़ता है| मेरे पापा जी जल निगम में इंजिनियर हैं और उन्होंने इंजीनियरिंग १९८१-८२ में की थी| मेरे बाबा जी गाँव के रहने वाले ही थे और कभी भी शहर नहीं गए थे, इस के बाबजूद भी उन्होंने पापा जी को अच्छी शिक्षा दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसका नतीजा यह है कि आज हमारे घर में २ इंजिनियर है (मैं और पापा जी ) और ३ इंजिनियर आने वाले हैं (मेरा भाई और दोनों बहने इंजीनियरिंग कर रहीं हैं)| पापा जी बताते हैं कि उस समय गाँव वाले पढाई को बहुत महत्व देते थे और सभी ने अपने अपने बच्चों को पढ़ने की पूरी कोशिश की थी. अध्यापक भी पढ़ाने में काफी रूचि लेते थे और समय समय पर विद्यार्थियों के घर पर आते रहते थे|
कई साल बीत गए हैं और अब २०१० दस्तक दे रहा है| मैं अक्सर अपने गाँव जाता रहता हूँ और गाँव में कही भी शिक्षा को नहीं पता. अब तो मेरे गाँव में स्कूल भी है ५ वीं कक्षा तक, उसके बाद भी कोई अपने बच्चों को पढने नहीं भेजता, हाँ, पंजीरी और चावल लेने के लिए भेजना नहीं भूलते| किताबों में रुपये खर्च करना उनको रुपये की बर्बादी लगता है, मुझे लगता ही नहीं कि ये वही गाँव है जहाँ से मेरे पापा और उनके कई मित्र उस समय इंजिनियर बन कर निकले थे जब शायद वो इंजिनियर शब्द का मतलब भी नहीं जानते होंगे और स्कूल जाने के लिए जंगल को पार कर के ३ कोस (९ किलोमीटर) पैदल चल कर जाना पड़ता था|

इस बदलाब का कारन जानने का प्रयत्न कर रहा हूँ| जान पाया तो आगे लिखूंगा....
यदि आप समझते हैं तो आप भी लिखिए 


वैसे में शिक्षा के प्रति जागरूकता फ़ैलाने का प्रयत्न और शिक्षा के सरल तरीकों की खोज में लगा हूँ जिससे कि उन जगहों पर भी अच्छी शिक्षा प्रदान की जा सके जहाँ पर अच्छे अध्यापक नहीं है. मैं यह प्रयाश एक छोटी फर्म जिसका नाम Learn By Watch है, के साथ मिल कर रहा हूँ| मेरे प्रयाशों को आप देख सकते हैं इस लिंक पर
http://www.youtube.com/watch?v=T6dWsov9bLI

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